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नए साल में नई आस

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 छोटे छोटे पदचिन्हों संग आता है हर साल नया, नया कैलेंडर, नई बात लेे सुरभित होता साल नया। नई उमंगें, नई तरंगें नई चाल यह लाता है मुरझाए चेहरों पर आकर नई आस मल जाता है, बाग बगीचे, ताल तलैया तितली, रंग, फूल बिखरे, घर आंगन में पग रखकर यह नए प्लान बनाता है। बच्चे बच्चे कहते सब से हैपी हो यह साल नया, धूम धड़ाका पिकनिक - शिकनिक झरती खुशियां, हाल नया। 2021 लाएगा  मतवाली हर शाम नई, परिवारों में हो पाएगी मस्ती वाली बात नई, साथ बैठ कर खाएंगे सब पूछेंगे सबका सब हाल, दौड़भाग से बच थोड़ा सा मन को करेंगे माला माल, अपनी बातें अपने सपने बांटेंगे परिवारों में, एकाकी होते जीवन को, खोलेंगे निज उपवन में,  कोरॉना से मिली सीख को सींचेंगे जीवन में सब, प्रकृति दे रही जो कुर्बानी, उसका मोल समझेंगे अब नए साल में , नए हाल में ख़ुद का साथ निभाएंगे, थोड़ा ज्यादा जी कर खुद को सेहतवान बनाएंगे।। ©️ अपर्णा बाजपेई

आना जाना

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 चांदी के तार उतर आए हों बालों में भले ही, झुर्रियां थाम रही हों हांथ चाहे जितना, दुखते हों पोर तन के भले ही अक्सर, मेरे दोस्त, ज़रा ठहरो भीतर: देखो कि अब भी उछलता है दिल नया कुछ करने को, सवार हो घोड़े पर सारा जहां टटोलने को, चाहते बढ़ रही हों जैसे प्यार नया, बसंत के मौसम में खिली हो जैसे सरसों, टूटना मत मेरे दोस्त उम्र के सामने कभी, सिर्फ गिनती हैं वर्ष और उनकी गांठे, फिराओ हांथ अपनी रूह को दो ताकत, ये समय है ये भी गुज़र जायेगा .. ©️Aparna Bajpai

आवाज़

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आवाज़ के सिरे पर तुम्हारे होठ कांपे थे कांप गई थी हवा कंठ में, शब्दों ने बोसा दिया था मेरे माथे पर, आंखों ने अंजुरी भर जल छींट दिया था मरुस्थल में, तुमने कहा था, जो तुम्हें नहीं कहना था! हृदय की धड़कन ने कहा था सच; जानती हो न! हवा के तार ने आकाशगंगा में फेंक दिए थे कुछ फूल, तुमने ताका था जब चांद आधी रात के बाद, मैं चुपचाप निहार रहा था तुम्हारा चेहरा;  चांद की शक्ल में, देश दूसरा है तो क्या हुआ  हवाओं ने चुराकर खुशबू तुम्हारे बालों से मेरी हंथेलियों पर रख दी है, कहो न आज! कितना खूबसूरत है जीवन तुम्हारी आवाज़ मेरे जीवन का आख़िरी सच है।। ©️अपर्णा बाजपेई

कामकाजी औरतें

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 ख़ुदा उन औरतों के कदमों में बैठ गया,  लौटते ही जिन्होंने परोसा था खाना बूढ़े मां- बाप को, उंगलियों से संवार दिए थे नन्हे पिल्ले के बाल, मुस्कुराकर लौटाया था, पड़ोसी के ख़ाली डिब्बे में मूंग दाल का हलवा, समय से होड़ लेती औरतें, कामकाजी होने के कारण बदनाम थीं, बदनाम औरतों ने खिदमत की परिवार की,  वे कमी को भी बरकत बता ,  पोछती रहीं पतियों की पेशानी से पसीना, वे भूल गई थीं अपनी अलको को समेटना धीरे से, अपने हाथों पर क्रीम की मसाज करना , पैरों को डाल गुनगुने पानी में धो देना मन का गुबार, काम का बोझ उनकी पलकों पर टंगा रहा, बॉस की झिड़की नाचती रही पुतलियों के आस - पास आंखों में काजल डाल वे खड़ी रहीं गृहस्थी की सरहद पर आमदनी में बढ़ाने को शून्यों की संख्या; वे तोड़ती रहीं अपनी कमजोरियों की सीमारेखा, वे औरतें काम में तल्लीन रहीं और दुनिया उनकी कमियां गिनने में। जब जब रखतीं वे पांव जमीन पर, ख़ुदा उनके साथ चलता, उनकी आंखों में आत्मविश्वास की चमक, ख़ुदा का दिया हुआ नूर था... और उनकी कमियों को गिनने में डूबी दुनिया उसी नूर से रौशन थी।। ©️ अपर्णा बाजपेई

जरूरत

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  किसानों का पसीना, स्त्रियों की उदासी और बच्चों के आंसू, आज का सबसे बड़ा सच हैं; और भूख, दुनिया का नवीनतम समाचार! एक ख़बर जो कभी पुरानी नहीं पड़ती. जैसे नहीं सूखती है बुजुर्गों के हाथों से आशीष की गंगा, दर्द किसी पहाड़ के सिरे पर टिका रहता है। सड़कों पर पड़े जानवरों की लाशें, सबूत हैं हमारी नष्ट होती मनुष्यता का, और दुनिया को मुट्ठी में कैद करने वाली डिवाइस, रिश्तों के रस को सुखाने का सबसे बड़ा हथियार... हंसती हुई स्त्रियां इस समय की सबसे बड़ी जरूरत हैं और : बच्चियों को मां की नज़र से देखने वाले मर्द आज के आराध्य देव... ©️ अपर्णा बाजपेई

परदेश

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 पानी संग निचुर जाती हैं आंखें सूर्य को अर्घ्य देती मां, मांगती है सलामती की दुआ, सुखी रहे लाल, घर परिवार, भरा रहें अंचरा, सुहागन बनी रहे पतोहु, बिटिया बसी रहे ससुराल,  और का मांगी छठी मैया! हर साल भर दियो अंगना! विदेश गए लाल की आंख, टिकी है चमचमाती स्क्रीन पर नदी , घाट, छठ, माई, दौरा  ठेकुआ , केरा और का... दो बूंद आंसू टपक जाते हैं स्क्रीन पर अब अर्घ्य पूरा हो गया... बिछोह और छठ मैया और लाल की दूरी सब समझे मजबूरी।। #kavita #chhathpuja #aparnabajpai

बुरा आदमी (#हिन्दी कविता)

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बुरे बनते आदमी की राह में उसकी अच्छाइयां होती हैं मील का पत्थर, कदम दर कदम नापता रिश्तों का खोखलापन आदमी हो जाता है पूरा का पूरा खाली, ढोल और नगाड़े से बजते हैं वे शब्द जो कहे गए थे कभी उसकी भलमनसाहत में. आदमी बुरा नहीं होता; आदमी होता है थोड़ा टेढ़ा, जो अपेक्षाओं की सीधी लकीरों में समा नहीं पाता।। #AparnaBajpai #आदमी

खतरनाक

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 हजारों वारदातों के बीच घूमना अकेले कुछ कम जोख़िम भरा नहीं, घर में चार मर्दों के बीच रहना भी जोख़िम ही है, तालाबों पर नहाना जंगल में काम करना  लकड़ी का बोझ ले बाज़ार में बैठना क्या कम खतरनाक है, और आप ही बताइए जनाब! औरत के तन में एक स्वतंत्र मन होना खतरनाक नहीं है क्या??, #स्त्री #aparnabajpai

अलगाव ( प्रेम कविता)

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प्रेम उन हवाओं से छनता रहा, जो तुम्हारे शहर से लौटी थीं, तुम्हारे स्पर्श से महका रजनीगंधा आज मेरे इत्र में अा मिला, सुबह पैरों के आसपास नाचती हुई तितली ने, तुम्हारी नज़रों का पैग़ाम मुझको सौंपा, मै बेसुध हूं ! फोन पर तुम्हारी खिलखिलाहट की घंटियां मेरे पांवों में थिरकन भर रही हैं, आज उंगलियों ने मेरे हस्ताक्षर में तुम्हारा नाम लिख दिया.. नदी के पाट पर बैठा रहा हूं; तुममें,खुद को खोजता परछाइयों ने जुदा होने से इन्कार कर दिया है.. #प्रेमकविता #aparnabajpai

रोटी का ख़त

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चूल्हे की रोटी ने संदेशा भेजा है, गए हुए लोगों ने याद किया भाफ़ को, रोटी के ख़त ने कहा है हवाओं से कि कह देना उनसे! चलें आएं वापस, बहार लौट चुकी है, वापसी के रास्तों पर नहीं जमी है अभी घास पावों को याद होगा अब भी पगडंडी पर अलसाई ओस का स्पर्श, लौटना कभी उतना मुश्किल नहीं होता जितना जाना, आत्मा को अपने सामान में समेटना, कितना तो कठिन होता है आंगन, देहरी, दीवारों से अपना हांथ छुड़ाना, लौटने के लिए हमेशा बची रहती है आस, पूछना उनसे जो छोड़ गए थे घर, खेत, माता पिता, यूं ही, रोटी रोज़गार, नून तेल सब की जुगत में.. इस बार लौटे तो खाली दालान ने कैसे की अगवानी, टूटे छप्पर ने लोरी गाई  कुंए के पानी ने ख़ाली पेट को तर किया या नहीं... कहना उनसे कि बांध लें असबाब, खेतों में मकई ने बांध दिया है समा, नन्हकू के छपरा पर फैला है कुम्हड़ा, अमरूद भर दे रहा है आंगन अपने बेटों से.. और इस बार आना वापसी का टिकट फाड़ कर फेंक देना रास्ते में गांव की बात गांव में , घर की बात घर में... अब सरकारी डायरियों में शहर की भीड़ छंट जाएगी। ©️ अपर्णा बाजपेई चित्र प्रभास कुमार की फेसबुक वाल से साभार

अस्तित्व

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  अच्छा हुआ कि आकाश हरा नहीं हुआ, धरती को लेने दी उसकी मन चाही रंगत, पेड़ों ने बर्फ के रंग न चुराए और बर्फ रही हमेशा अपने ही रंग में, अगर मिल जाता रंग धरती और आकाश का  तो क्या; धरती 'धरती' रहती! और आकाश बना रह पाता आकाश? ©️ अपर्णा बाजपेई चित्र  कवियत्री 'नताशा'  की फेसबुक वाल से साभार

खिड़की

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 कमरे की बंद खिड़की के पास, एक चुप चुपके से खिसक आती है, सीकचों से झांकती है घूंघट के भीतर का आकाश, हवा धीरे से छू लेती है उसकी अल्कों का दामन और चुप; चुपचाप ढक कर अपनी रूह के निशान, खिड़कियों के पीछे  छाप देती है अपनी हंथेलियों के अनकहे रंग। ©️ अपर्णा बाजपेई

शिक्षक जानता है

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 कक्षा की अंतिम कतार में  बैठता है अपने समय का सबसे प्रतिभाशाली छात्र, कॉपी के अंतिम पृष्ठ पर है रची जाती है उसकी बोरियत की रंगीन दुनिया, शिक्षक जानता है,  रंगा जा रहा है आज की शिक्षा का काला इतिहास; हर जीनियस बच्चे की कॉपी के अंतिम पृष्ठ पर, शिक्षक समझता है, उसके पाठ हो चुके हैं अर्थहीन, रोजी- रोजगार की संभावनाएं अब स्कूली किताबों के लिए दिवा स्वप्न है, शिक्षक जानता है वह मार रहा है  छात्रों की कल्पनाशीलता को रटाते हुए पुराने जवाब, मौन और मक्कारी के समय में शिक्षक  भर रहा है अपने बच्चों का पेट, विद्यालय में उपस्थिति का रजिस्टर  और मिड डे मील की थालियों की गणना शिक्षकों का प्रथम और अंतिम कर्तव्य है, ©️ अपर्णा बाजपेई

दृश्य

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1. दर्शकों ने इस बार तालियां नहीं बजाईं, न ही उतरे वो संवेदना के समुद्र में, दर्शक मंच पर थे, दृश्य में उतरे हुए, बलात्कारी के साथ... वासना का कथानक; पूरे थियेटर पर तारी था। 2. खिड़की के बाहर लटकी हैं दो आंखें, उमग कर करती हैं सलाम हवा के ताजे झोंके को, आंखें टिकी हैं ज़मीन पर  नाचते हुए पत्ते मृत्यु के जश्न में तल्लीन हैं। 3. चिता की आग पर उबल रहा पानी मृत्यु का आखिरी घूंट है, चाय की चुस्की विदा का अनन्य उपहार, जीवन और मृत्यु, चाय की परिधि में घूमते दो चक्र हैं। 4. पलाश के फूल और सुगनी के जूड़े का क्लिप  आदिवासी सभ्यता का स्थाई सौंदर्य हैं, जंगल दहकता है, उगलता है आग, हरियाणा के बाज़ार में; जूड़े का क्लिप; किसी की पैंट का  स्थाई बटन बनता है।। ©️Aparna Bajpai

कंधे

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ईश्वर उनके दरवाजे पर खड़ा था पीठ पर था हजारों मन्नतों का बोझ  पैर जकड़े थे मालाओं की डोरियों में,  आंख भर देखने के बाद ईश्वर ने ली संतोष की सांस, माड़ का कटोरा लिए हुए बच्चे नाच रहे थे मरणासन्न मां के आसपास, ईश्वर का काम ख़त्म हो चुका था... अब खुशियों का बोझ बच्चों के कंधों पर था.. ©️Aparna Bajpai

चिड़िया का इंतजाम

  उनके घर में एक चिड़िया है, रोज दाना लाती है। घर भर का पेट भरती है और परिवार के सब लोग निश्चिंत होकर सोते है। आज की रोटी और कल की दाल का इंतजाम चिड़िया के भरोसे है। सब कुछ सेट है। कहीं कोई दिक्कत नहीं।  वहीं पर एक और घर है, घर में दो लोग है मां और बेटी । मां घर के बाहर नहीं निकाल सकती और बेटी कमाती है । घर ठीक से चल जाता है और कोई चिंता नहीं। अचानक बेटी का काम एक्सीडेंट हो जाता है और उसका काम छूट जाता है।  घर  में अब दाना लाने वाली कोई चिड़िया नहीं।   समस्या जटिल है। चिड़िया का इंतजाम कैसे हो । दाना कौन लाए? बेटी का विवाह हो और उसका पति जिम्मेदारी उठाए।  बेटी का विवाह नहीं हो पाता, दूल्हा कौन खोजे, इंतजाम कौन करे? सामाजिक रूप से उनका कोई पालनहार नहीं। अब क्या हो? क्या वे दोनो आत्महत्या कर लें जो कि पड़ोसी चाहते हैं, ताकि उनका घर हड़पा जा सके. मां 60वर्ष से ज्यादा की है और बेटी 40 के आसपास। उम्र साथ छोड़ रही है.... समाज भी... संकट गहरा है और हितैषी न के बराबर। अब रसोई के सारे कनस्तर खाली हैं और भरने वाला कोई नहीं... कोई कुछ करेगा क्या????

क्रूर काल

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मै इस बार उन देवों से बहुत दूर रही जो मंदिरों में विराजते है, जो मठों में साधना में लीन हैं, जो चर्चों और मस्जिदों में ठहरे हैं  और जो कुलों की रखवाली के लिए  हर देहरी पर विराजमान हैं, मैंने इस बार ईश्वर को तड़पते देखा, सड़कों, पुलों और अंधेरी कोठरियों की पनाह लिए, भूखे बच्चों और गर्भवतीस्त्रियों के कोटरों में, ईश्वर मरता रहा ; करता रहा विलाप.... सभ्य समाज की क्रूरता ने  मार दिया ईश्वर का ईश्वरतव, सर्व शक्तिमान सत्ता ने अपने सबसे बुरे दिन देखे... वे बंदीगृह के सबसे महान दिन थे... ©️Aparna Bajpai Picture credit Google

छल

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मै इस बार थोड़ा और छली गई खुद से खुद ने छोड़ा हाथ, उम्मीद ने छोड़ा दामन रौशनी ने तोड़ा आंखों का भरोसा, वर्षों ने गलत गिनती बताई, प्रेम ने रोटी के बीच रख दिए कुछ सिक्के, आवाज़ ने भाषा का पुल तोड़ दिया, मै गुलाब में रजनीगंधा खोजती रही, पाषाण ने पानी को कर लिया कैद अपने गर्भ में, पेड़ों के बच्चों ने किलकारी नहीं भरी धरती ने करवट बदली और टिक गई स्त्री की पीठ पर, अब 'छल' स्त्री और स्त्री के बीच 'प्रेम' बन ज़िंदा है.. ©️ Aparna Bajpai Picture credit Google

अपनी - अपनी हकीक़त (लघु कथा)

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उन्होंने अपने बच्चे को बुलाकर कहा, बेटा ज़रा इस बच्चे को रसोई से रोटी लाकर दो! बहुत भूखा है शायद.. बेटा उस बच्चे को देखता रहा और फ़िर उसे बुलाकर अपने घर के अंदर ले गया। बोला रोटी और सब्जी मैं निकाल रहा हूं, फ्रिज से पानी तुम निकाल लो।  बच्चे ने फ्रिज खोला और उसे पानी के साथ कुछ फल भी दिख गए। उसने पानी निकाला और फ्रिज बंद कर दिया। उनके बेटे ने उसके साथ - साथ अपने लिए भी खाना निकाला और साथ में बैठकर खाने लगा। तब तक वो अंदर आयीं , अपने बेटे को उस बच्चे के साथ खाते हुए देखकर उनका गुस्सा सातवें आसमान पर पंहुच गया। तुझे इसे रोटी देने के लिए कहा था या साथ में बैठकर खिलाने के लिए। ए लड़के रोटी उठा और नि कल घर के बाहर....कहां कहां से आ जाते हैं..  सारी सहानुभूति एक मिनट में गायब! उनका बेटा भी उसके साथ चल दिया... मानो दोनो दोस्त बहुत दिन बाद मिल रहे हों। Picture credit google

Mask, marriage, lock down

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कल जून 2020 के अंतिम दिन झारखंड में तीरंदाजी के दो धनुर्धरों ने शादी की । दीपिका कुमारी और अतनु दास। दोनो बचपन से साथ में तीरंदाजी सीख रहे थे, वक्त के साथ उनका प्रेम परवान चढ़ा और अंततः शादी के पवित्र बंधन ने दोनो को जीवन भर के लिए साथ कर दिया।  यह तो थी दीपिका कुमारी की शादी की बात लेकिन इस शादी में जो सबसे अहम बात थी वह थी मास्क पहनने की अनिवार्यता और इसके लिए विशेष सुरक्षा इंतजाम। Kovid- 19 के दौर में भारतीय परम्परागत विवाह का इंतजाम और महामारी से बचाव के लिए अपनाए गए पुख्ता तौर तरीके। हालांकि  इस शादी में सरकार के निर्देशों से अधिक मेहमानों की उपस्थिति और सामाजिक दूरी न कायम रखने के कारण नोटिस जारी किया गया है। क्या इस तरह लॉकडाउन से पहले किसी विवाह में स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से इतनी तैयारी की गई होगी और कम से कम मेह मानों को बुलाने के बारे में सोचा गया होगा। शायद नहीं जबकि विवाह स्वास्थ्य से ज्यादा महत्वपूर्ण तो नहीं है। लोग स्वस्थ होंगे तभी विवाह जैसे आयोजन उत्सव में बदल पाएंगे। तो इस विषय पर हम क्यों नहीं सोचते। इस दौर में कुछ और शादियां हुई और उनमें भी सरकार की गाइडलाइन के अनुस

रात की सुबह

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  उदासी के बाद मुस्कान की चमक, जैसे मेघों ने किया हवाओं का आलिंगन, उम्र ने कुछ राग छेड़ा, साहिल को ढूंढ कर पंहुचा घर नाविक, पहाड़ ने जमीं को प्यार किया जैसे रात ने सुबह में खोज लिया अंत।