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ओ बेआवाज़ लड़कियों !

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बेआवाज़ लड़कियों ! उठों न, देखो तुम्हारे रुदन में........ कितनी किलकारियां खामोश हैं. कितनी परियां गुमनाम हैं तुम्हारे वज़ूद में. तुम्हारी साँसे लाशों को भी ज़िंदगी बख़्श देती हैं.... ओ बेआवाज़ लड़कियों! एक बार कहो जो तुमने अब तक नहीं कहा........ कहो जो बंद पड़ा है तुम्हारे तहखाने में....... कहो कि दुनिया बेनूर हो रही है तुम्हारे शब्दों के बगैर। ...... इस मरघट सन्नाटे में अपनी आवाज़ का संगीत छेड़ो। अपने शब्दों का चुम्बन जड़ दो हर अवसादग्रस्त मस्तक पर. उल्लास का वरक लगा दो हर ख़त्म होती उम्मीद पर. ओ  बेआवाज़ लड़कियों ! बोलो, कहो अनकही कहानियां इससे पहले कि ये समाज तुम्हारे ताबूत पर अंतिम कील ठोंक दे। (pic - google )

कौन है 'वो'

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   1.  आज उसने अपना दर्द  रोटी पर लगाया  और चटकारे ले-ले कर खाया, गुस्से को चबा-चबा कर हज़म कर गयी, भूख इतनी थी कि निगल गयी अपना अस्तित्व चुपचाप, अब बंद पड़ी है बोतल के अन्दर; जब कोई ढक्कन खोलेगा; समझ जाएगा उसके होने के मायने। २. चौखट पर बिखरी है धूप बन....  घर को रौशन करने को आतुर, ओस बन छुआ है तुम्हारे तलवों को  दूब की हरियाली बन......  जड़ जमाई है तुम्हारे मन में, बूँद बन छुपी है.....  तुम्हारी पलकों के नीचे; अरे- अरे हौले से छूना! कंही दरक न जाये उसका स्वाभिमान; मर्यादा है तुम्हारे घर की, सदियों से यही तो कहते आये हो न!  3. सात पर्दों में, दरवाजों के अन्दर  चुन्नियों और नकाबों में, कंहा -कंहा छुपाया है; फिर भी निकल आती है, खुशबू बन बिखर जाती है. नीम के बीज सी, कभी कड़वी कभी मीठी; आवाज़ है वो! लोरी बन सुला सकती है तो बहरा भी कर सकती है बस पंगा मत लेना!  (Picture credit google)

कहानी- दाग ही तो है

ये कहानी पहले रचनाकार पर प्रकाशित हो चुकी है. नीचे इसका लिन्क दिया गया है. मेरे ब्लोग पर भी इसे  पढ़ सकते हैं. http://www.rachanakar.org/2017/06/blog-post_19.html?m=1 http://www.rachanakar.org/2017/06/blog-post_19.html?m=1 कहानी- बहुत दिनों बाद आज जीन्स पहन कर घर से निकली थी। जीन्स में जो कम्फर्ट मिलता था वो किसी और ड्रेस में नहीं था। मन थोड़ा खुश था, उन्मुक्त , एक अलग एहसास। सोचा थोड़ी दूर पैदल चल कर अगले बस स्टाप से बस पर पकड़ूंगी। समय भी था । आज ऑफिस में ज्यादा काम भी नहीं था। बस स्टॉप पर पारूल मिल गयी मेरी कलीग। हम दोनों साथ साथ बस में चढ़े। बस में ज्यादा भीड़ नहीं थी। सामने की सीट खाली थी । हम दोनों बैठ गये। मैं बैठी ही थी कि पेट के नीचे थोड़ा मरोड़ सा हुआ। थोड़ी देर बाद मुझे कुछ डिस्चार्ज सा महसूस हुआ । मैं समझ गयी थी क्या हुआ लेकिन चार दिन पहले..... अब क्या करें। ब्लड शायद जीन्स की हद पार कर चुका था। मैं पेट को दबाकर बैठी थी इस उधेड़बुन में क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा था। मैंने पारूल के कान में बताया तो उसका चेहरा देखने लायक था । वो क्या बताती उसकी तो जैसे जान अटक गयी थी। मेर

आवाज़ कौन उठाएगा?

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मेरे शब्दों  का रंग लाल है  रक्तिम लाल! जैसे झूठी मुठभेड़ में मरे   निर्दोष आदमी का रक्त.... जैसे रेड लाइट एरिया में पनाह ली हुई.......  औरत के सिन्दूर का रंग.  जैसे टी बी के मरीज का खून ..... जो उलट देता है अपनी गरीबी.... हर खांसी के साथ. ये रक्तिम शब्द भी इतने बेज़ान हैं...... बस पड़े रहते हैं ......... काल-कोठारी के भीतर! आवाज़ कौन उठाएगा?????????????????????????? (image credit google)

दूसरी औरत से प्रेम

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वो जो चली गयी है अभी अभी तुम्हे छोड़कर, है बड़ी हसीन ! जैसे नए बुनकर की उम्मीद, उँगलियों से बुने महीन सूत के जोड़ सी।  जब भी तुम चूमना चाहते हो मुझे, उसके होंठ.....  मुझे तुम्हारे होठों पर नज़र आते हैं; और उसके गालों का गुलाबीपन ..... छा जाता है मेरे वजूद पर. उसके इत्र की खुशबू ....... कमबख्त जाती ही नहीं इस कमरे से . जब भी थामना चाहती हूँ तुम्हारा हाँथ........ उसकी नाज़ुक उंगलियाँ  मेरे तन में सरगम छेड़ देती हैं. वो हार तो गयी है मुझसे .... हमारे जायज़ रिश्ते को बचाने के लिए; पर मै उसके प्रेम में गुम सी गयी हूँ. (picture credit- google)

तुम्हारा उपहार

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आज तुम्हारी रजिस्ट्री मिली है मुझे, कुछ प्यार के आभूषण हैं कुछ सपनों की पोशाकें, वही जो तुमने अपनी दहलीज़ के नीचे दबा रखी थीं. मैंने तुम्हारे उपहार पहन लिए है, देखो न कैसी लग रही हूँ? वैसी ही न! जैसी एक शाम...... कॉफ़ी की अंतिम बूँद में छोड़ आये थे मुझे..... या जैसी दबा आये थे...... पार्क में सूखे पत्तों के नीचे, मै तो अब भी वैसी ही हूँ; जैसी तुमने कैद कर रखा है..... अपने मखमली संदूक में और थोड़ा सा अपने तकिये के नीचे..... अपने चेहरे पर.... तुम अब भी मुझे पढ़ते हो हर रोज़...... मेरा कुछ हिस्सा तुम अपनी जेबों में भी रखते हो; और कुछ अपने दोस्तों के कानों में. तुम्हारे बैंक बैलेंस में....... बढ़ते हुए शून्यों की जगह मै ही तो हूँ; फिर भी! यंहा-वंहा रखकर क्यों भूल जाते हो मुझे? इन उपहारों के साथ मुझे भी क्यों न भेज दिया मेरे पास?   शायद मैं ‘मै’ हो पाती और तुम ‘तुम’.                                            (चित्र साभार google)                                      

स्कूल में बच्चे की ह्त्या - २ कवितायें

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1. ये जो तुमने मौत ओढ़ाई है मुझे कितनी लाचार है अपनी कोशिशों में. मै तो अब भी ज़िंदा हूँ तुम्हारे खून से सने हाथों में , तुम्हारे दुधमुहे बच्चे की बोतल में मेरी साँसे बंद हैं और तुम्हारी पत्नी की मुस्कान : ज़रा गौर से देखो! मेरी खिलखिलाहट नज़र नहीं आ रही. स्कूल के बाथरूम में जब रेत रहे थे मेरी गर्दन; तुम्हारी आत्मा तो तभी मर गयी थी और मेरी चीखें तुम्हारी नींद पर लगा दाग हैं. बंद करो आँखे! मेरी तड़पती देह तुम्हे सोने नहीं देगी समझ नहीं आता तुमने क्यों किया ऐसा? अपने बच्चों की मुस्काने खरीदने के लिए; वो तो तुम अब भी नहीं देख पाओगे. जब जब हँसेंगे तम्हारे बच्चे मेरा खून से लथपथ ज़िस्म तुम्हारी नज़र का पर्दा बन जाएगा.   २. चाँद तारे चुप है तितलियों के रंग जाने कंहा खो गये आज गुब्बारों की उड़ान मर गयी है तुम्हारी फेवरेट चाकलेट कब से पड़ी है बिस्तर के नीचे तुम्हारी रिमोट कार  कब से बेचैन है तुम्हारे लम्स के लिए...... ये इतना सन्नाटा क्योँ है? सारे खिलौने गुमसुम से हैं और बगीचे में खिले फूलों से खुशबू नदारद....... तुमको आ जाना चाहिए था अब तक मेरे लाल! देखो न हज़ार बार द

माँ का होना-न होना

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तुम्हारा जाना बहुत अखर रहा है माँ! अनुपस्थिति है फिर भी है उपस्थिति का एहसास.  होने न होने के बीच डोलते मनोभाव! कैसे कहूँ! तुम थीं तो सोचता था कब आयेगा तुम्हारा वक्त, बिस्तर साफ़ करना,धोना, पोछना, नहलाना, खिलाना, पिलाना  उकता गया था मै तुम्हारे इन कामों से, तंग आ गया था तुम्हारे बार-बार आवाज़ देने से, तुम्हारी कराह से नींद टूटती थी मेरी कोसता था; तुमको, खुद को और इन परिस्थितियों को. आज तुम नहीं हो फिर भी है तुम्हारा एहसास, तुम्हारा होना इस कमरे में तैर रहा है, फ़ैली है गन्ध चारों ओर, महसूसता हूँ तुम्हे अपने भीतरी-अपने बाहर. अब कोसता हूँ खुद को कि; क्योँ नहीं तुम्हारे होने का जश्न मना पाया माँ ! जैसे तुमने मनाया था जश्न मेरे होने का अपने भीतर- अपने बाहर. (picture credit Google)

हम प्रेम पगी बाते छेड़ें

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pic credit google  कुछ हल्की- फुल्की बातें हों  कुछ नेह भरी बरसातें हों  कुछ बीते जीते लम्हे हों  कुछ गहरी- उथली बातें हों. कभी हम रूठा -रूठी खेलें  कभी हम थोड़ीे मनुहार करें  कभी आपा -धापी भूल  चलें  कभी एक -दूजे का हाँथ गहें। कभी एक कदम मै और बढ़ूँ   कभी तुम थोड़ा अभिमान तजो  कभी एक -दूजे के मानस में  हम प्रेम भरी बौछार करें।  तुम जीते हो मन में मेरे  मै स्पंदन तेरे तन का  तुम  मेरे भावों की धरती  मै जीवन भर आकाश तेरा। आ जी लें अपने सपनों को  हम एक दूजे के कन्धों पर  तुम मेरी सीढ़ी बनो कभी  मै तेरी क्षमता बन  जाऊं।  जब रात कोई काली आये  हम हाथ थाम आगे आएं  सब स्याह -कठिन घड़ियों में फिर  हम प्रेम पगी बाते छेड़ें। 

हम सफेदपोश!

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आओ न थोड़ी सादगी ओढ़ लें थोड़ी सी ओढ़ लें मासूमियत काले काले चेहरों पर थोड़ी पॉलिश पोत लें नियत के काले दागों हो सर्फ़ से धो लें. उतार दें उस मज़दूर का कर्ज जो कल से हमारे उजाले के लिए आसमान में टंगा है भूखा प्यासा होकर भी काम पर लगा है. खेतों में अन्न उगाकर दाना दाना दे जाता है बाद में क़र्ज़ से खुद ही मर जाता है हर छोटी-बड़ी घटना पर जो आवाज उठाते हैं हमारे सनातन मौन से मुंह की खाते हैं. कभी गाँव में कभी जंतर मंतर पर भीड़ लगाते हैं अपना पेशाब पीकर हमें डराते हैं. खुदकुशी करके हमारा क्या बिगाड़ लेंगे हिंसक रूप धरकर भी हमसे क्या पा लेंगे मारेंगे अपने ही भाई बिरादरों को! पुलिस में सेना में उन्हीं के रिश्तेदार हैं हम तो जाने -माने मक्कार हैं उन्हीं के लिए गड्ढा खोद उन्हीं के घर खाते है हर घटना पर 'कायराना हरकत है ' कह साफ़ मुकर जाते हैं. कब तक उन्हें  सब्सिडी का चोखा खिलाएंगे कभी तो उनको असली कीमत बताएँगे वो कहते हैं गज़ब की मंहगाई है जानते नहीं इसमें उन्ही की जग हंसाई है सरकारी अस्पतालों में भीड़ लगाते हैं कुछ हो जाए तो सरकार को गरियाते हैं ये नहीं कि प्राइवे

गौरी लंकेश की मौत पर (On the death of Gauri Lankesh)

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तुमने एक सच को मारना चाहा वो तुम्हे मरकर भी अंगूठा दिखा रहा है! कलम है, रुक नहीं सकती शब्द मौन नहीं हो सकते कितनी ही कर लो कोशिश दबा लो गला काट दो नाड़ी विक्षिप्त घोषित कर दो ओढा दो कफ़न दफ़न नहीं कर सकते सच्चाई. खुश भले हो लो दो-चार को मार कर कॉलर खड़ी कर लो अपने आप खुद की वाह वाही बटोर लो कायरों की क्या आइना दिखा पाओगे खुद को? अपना ही चेहरा वीभत्स नहीं दिखेगा तुम्हे! जिस दिन खड़े होगे अपने सामने अपना आप बहुत बौना लगेगा, अपनी हरकतों से पैसे भले ही बटोर लो अपनी ही नज़रों में नंगे हो जाओगे. (picture credit to google)

तुम मेरा मधुमास बन कर लौट आओ!

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लौट कर आओ ज़रा सा मुस्कुराओ चाँद- तारों को हंथेली में छुपाओ और कह दो रात ये सूनी न होगी उन नयन में दीप्ति मेरी गुनगुनाओ तुम मेरा मधुमास बन कर लौट आओ. मै अकेला ही रुका था बाँध पर जब तुम नदी सी बह चली थी भोर के संग साथ मेरे थम गया था द्वेष सारा तुम हवा सी उड़ चली थी रीत पर सब. था सघन नव स्नेह तेरा मेरे ऊपर और मेरा प्रेम कुछ उथला बुना था मै रुका था रीत थामे इस धरा की तुम स्वरा सी मुक्त होकर बह चली थीं. हूँ अकेला याद तेरी रौशनी है तुम नहीं हो छाँव ये तुम सी घनी है    मैं थका सा गीत अब किसको सुनाऊँ  मेरे अधरों पर उमड़ कुछ गुनगुनाओ तुम मेरा मधुमास बन कर लौट आओ. (Picture credit to google)

स्टेशन वाले मास्टर जी

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pic- google आपको देखकर उस दिन  बहुत डर लगा था मुझे. पता है क्योँ ? मुझे लगा आप मेरी पूरे दिन की मेहनत नाले में फेंकने आये है. आपके घर के पास खाली बोतलें, प्लास्टिक की थैलियाँ, कुछ कबाड़ में बिकने वाली चीजे चुन रही थी. मुझे लगा आप मुझे आभी डाट कर या मार कर भगा देंगे जैसे और लोगों ने कई बार किया था.आप ने मुझे भगाया नहीं, न ही मेरे काम के बारे में कुछ पूछा. मुझे हिकारत भरी नजरों से भी नहीं देखा.बस आपने मेरा नाम पूछा. मेरे गालों को प्यार से सहलाया और अगले दिन स्टेशन के बाहर मिलने के लिए बुलाया.मै आवाक थी. किसी को नहीं बताया. रात भर नींद नहीं आयी. जाने क्योँ आप का वो मेरे गालों को प्यार से सहलाना बार बार याद आ रहा था. आज तक मुझसे इतने प्यार से कोई नहीं मिला था. सुबह जब मै उठी सबसे पहले आप का ख़याल आया. मुझे आप से मिलने की बहुत ज़ल्दी थी. लेकिन काम पर भी जाना था. नहीं तो आज रात भूखे सोना पड़ता. मै तो सो भी लेती, लेकिन मेरा छोटा भाई भूखा होने से रात बार रोता है. मुझे भी सोने नहीं देता. मैंने दिन भर अपना काम किया. आज जो भी मिला जल्दी से जाकर कबाड़ी के पास बेच दिया और आप से मिलने आ गयी. अरे

सेल्फी में चमकता देश

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picture - google  मेरे चहरे पर ये जो उदासी देख रहे हो मेरी ही पीड़ा नहीं है इसमे मेरी आँखों में थोड़े से आंसू सीरिया के उन बच्चों के भी है; जिन्होंने पैदा होने  के बाद सिर्फ बारूद का धुंआ देखा है, मेरी उफ़्फ़ में उन लाखों औरतों का दर्द है जो अनचाहे ही बिस्तरों पर पटक दी जाती हैं, मेरी सूजी हुई आँखें कहानी कहती हैं उस बेनींद बुढ़ापे की जो दरवाजे पर टकटकी लगाए अंतिम  साँसे गिन रहा है. तुम कहते हो तुम्हे मेरे चेहरे पर प्यार नज़र नहीं आता; हाँ, उसे मैंने तितलियों के परों में छुपा दिया है; न जाने कब प्यार की कालाबाज़ारी में जेल हो जाए हमें। अरे संभल जाओ संवेदना को सरे आम जीने वालों सरकार हमारे शब्दों  बैन लगाने वाली है। ओ मेंहदी रचे हांथो वाली विधवाओं! ज़रा अपने फौजी पतियों की जेबें तो टटोलो कहीं कोई प्रेम पत्र तो नहीं छोड़ गया तुम्हारे लिए/???? सरकार से कोई उम्मीद मत रखना! वो सेल्फिस्तान में झूठी मुस्काने बेचने में व्यस्त है. देश भूखे बचपन , लाचार जवानी , बेउम्मीद बुढ़ापे से कराह रहा है और दुनिया ; सेल्फियों में चमकती हमारी झूठी मुस्कानों की कीमत लगा रही  

सागर हो कर क्या कर लोगे?

एक था सागर भरा लबालब प्यास के मारे तड़प रहा था, इतनी थाती रखकर भी वो बूंद - बूंद को मचल रहा था, नदिया ने फ़िर हाथ मिलाया, घूंट-घूंट उसको सहलाया, उसके खारे पानी में भी अपना मीठा नीर मिलाया. दोनो मिलकर एक हुए जब मीठा जल भी खारा हो गया. दुनिया कहती नदी बनो तुम, सारे जग की प्यास हरो तुम. सागर हो कर क्या कर लोगे? कैसे सबकी प्यास हरोगे? कैसे धरती हरी करोगे?

ज्यादा सुरक्षित हैं ये जंगल

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(चित्र साभार शिवानंद रथ फेसबुक वाल ) हर रोज गुजरती हूँ इस राह कभी डर नहीं लगा. फिर भी कहते हैं लोग संभल कर जाना, न जाने कब धमक पड़े बनबिलाव सरे आम, भूख मिटाने के लिए तोड़ने लगे तुम्हारा जिस्म। हाथ में पिसी मिर्च जरूर रखना, दिखे कोई जंगली जानवर! भागना मत, सीधे आँखों में झोंक देना। सोचती हूँ, न जाने क्योँ इन हरे जंगलों में आने से डरते हैं लोग? यंहा तो सब कुछ साफ़ है हवा भी, पानी भी भूख भी और नियत भी. यंहा चुपके से कोई हाँथ नहीं रेंगता पीठ पर. न ही कोई गंदी नज़र कपड़ों के तले भी, उघाड़ कर रख देती है सरे राह. लोग प्यार से मिलते जरूर हैं पर सीटियां नहीं बजाते। ज्यादा सुरक्षित पाती हूँ खुद को इन जंगलों में लोग मस्त हैं अपनी फाकाकशी में, किसी को लूटने नहीं जाते। औरते ज़्यादा हैं महफूज इनके घरों में उन पर मर्यादा के पहरे नहीं लगते।

एक टूटी कहानी

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एक राह चुनी थी कुछ कदम चली थी कुछ मान था  तेरा कुछ साथ था मेरा हम संग बढ़े  थे हम संग लड़े थे। कुछ काली रातें कुछ चुभती बातें , कुछ शब्द लुटे से कुछ ज़ख्म हरे से वो बात पुरानी क्यों हमने जानी? न कुछ काला था न कुछ उजला था बस दूर खड़े थे हम बिखर चुके थे. वो संग हमारा अब काला धब्बा। हम ले बैठे हैं कुछ यादें टूटी सब बदल चुका है दिल मचल चुका है अब किससे कह दूँ वो सांझ पुरानी अब कैसे बांधूं वो आस पुरानी वो आस पुरानी।