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खरीद -फ़रोख़्त (#Human trafficking)

बिकना मुश्किल नहीं न ही बेचना, मुश्किल है गायब हो जाना, लुभावने वादों और पैसों की खनक खींच लेती है इंसान को बाज़ार में, गांवो से गायब हो रही हैं बेटियां, बेचे जा रहे हैं बच्चे, आंखों से लुढ़कने वाले आँसू रेत का दामन थाम बस गए हैं आंखों में, लौट आने की उम्मीद में, गायब हो रही हैं पगडंडियां, उदास हैं अम्मी और अब्बू! न पैसे न औलाद, कोई नहीं लौटता, निगल लेती है मजबूरी, गुम हो रही है पानी से तरंग ख़ाली गांव, ख़ाली घर सन्नाटे के सफ़र पर चल निकला है आदमी.... कि बाज़ार  निगल गया है रिश्तों की गर्माहट। #AparnaBajpai

मंदिर में महिलाएं

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अधजगी नींद सी कुछ बेचैन हैं तुम्हारी आंखें, आज काजल कुछ उदास है थकान सी पसरी है होंठों के बीच हंसी से दूर छिटक गई है खनक, आओ न, अपनी देह पर उभर आए ये बादल, सृजन की शक्ति के सार्थक चिन्हों का स्वागत करो, पांवों में दर्द की सिहरन को उतार दो कुछ क्षण , राधे! आज मंदिर की शीतल सिला पर सुकून की सांस लो, सृष्टि की अनुगामिनी हो, लाज का नहीं, गर्व का कारण है ये, रजस्वला हो, लोक-निर्माण की सहगामिनी! मेरी सहचर! स्त्री के रज से अपवित्र नही होता  मैं, मंदिर और संसार फ़िर.. ये डर..क्यों?  कृष्ण ने राधा से कहा. #AparnaBajpai

#me too

भीतर कौंधती है बिजली, कांप जाता है तन अनायास, दिल की धड़कन लगाती है रेस, और रक्त....जम जाता है, डर बोलता नहीं कहता नहीं, नाचता है आंख की पुतलियों के साथ, कंपकंपाते होंठ और थरथराता ज़िस्म, लुढ़कता है आदिम सभ्यता की ओर, तन पर कसे कपड़े होते तार-तार आत्मा चीखती है घुट जाती आवाज़ भीतर ही,  बच्ची... जैसे जन्म से होती है जवान, वासना की लपलपाती जीभ भस्म कर देती है सारे नैतिक आवरण, आवाज़ तेज कर लड़की, बाज़ार के ठेकेदार, भूल रहे है तुम्हारी कीमत डरना गुनाह है, डराया जाएगा आजन्म, पर हिम्मत भीतर ही है, खोजो और खींच लाओ बाहर! तुम्हारे सच पर भरोसा है, तुम्हे भी, मुझे भी मैं भी हूँ तुम्हारी आवाज़ में, ऐ जांबाज़ हमसफ़र भरोसा!! #me too

उम्र का हिसाब

उस दिन कुछ धागे बस यूं ही लपेट दिए बरगद में, और जोड़ने लगी उम्र का हिसाब उंगलियों पर पड़े निशान, सच ही बोलते हैं, एक पत्ता गिरा, कह गया सच, धागों से उम्र न बढ़ती है, न घटती है, उतर ही जाता है उम्र का उबाल एक दिन, जमीन बुला लेती है अंततः बैठाती है गोद, थपकियों में आती है मौत की नींद, छूट जाते हैं चंद निशान धागों की शक्ल में..... बरगद हरियाता है, हर पतझड़ दे बाद, जीवन भी......

प्रेम-राग

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बड़ा पावन है धरती और बारिश का रिश्ता, झूम कर नाचती बारिश और मह-मह महकती धरती; बनती है सृष्टि का आधार, उगते हैं बीज, नए जीवन का आगाज़, शाश्वत प्रेम का अनूठा उपहार, बारिश और धरती का मधुर राग, उन्मुक्त हवाओं में उड़ती, सरस संगीत की धार, तृप्त जन, मन, तन तृप्त संसार. #AparnaBajpai

समलैंगिक प्रेम

बड़ा अजीब है प्रेम, किसी को भी हो जाता है, लड़की को लड़की से, लड़के को लड़के से भी, समलैंगिक प्रेम खड़ा है कटघरे में, अपराध है सभ्य समाज में, नथ और नाक के रिश्ते की तरह, बड़ा गज़ब होता है, एक होंठ पर दूसरे होंठ का बैठना, बड़ी चतुर होती है जीभ दांतों के बीच, कभी-कभी पांच की जगह छः उंगलियां भी रोक नहीं पाती एशियाड में सोना मिलने से, गोरी लड़की के काले मसूढ़े भी, बन जाते हैं कुरूपता के मानक, एक दांत पर दूसरे दांत का उग आना, गाड़ देता है भाग्य के झंडे, इस समाज में अजीब बातें  भी हो जाती हैं स्वीकार, फ़िर, समलैंगिक प्रेम! क्यों रहा है बहिष्कृत? क्यों है यह अपराध? जिस समाज में प्रेम ही हो कटघरे में वंहा समलैंगिकता पर बात! हुजूर, आप की मति तो मारी नहीं गई, विक्षिप्तता की ओर भागते दिमाग को रोकिये, गंदी बातें कर पुरातन संस्कृति पर छिड़कते हो तेज़ाब, ज़ुबान न जला दी जाए आपकी.... साफ़ सुथरी कविता लिखिए, फूल ,पत्ती, चांद, धरती कितना कुछ तो है, देखने सुनने को, फ़िर... अपनी मति पर कीचड़ मत पोतिये, कुछ बातें सिर्फ़ किताबों के लिए छोड़िये, प्रेम के अंधेरे गर्तों को मत उलीचिये, रहने दीजि

भीड़ का ज़मीर

मैं इस बार मिलूँगी भीड़ में निर्वस्त्र, नींद जब भाग खड़ी होगी दूर आँख बंद होने पर दिखेगी सिर्फ भीड़, बाहें पसारते ही सिमट जायेगा तुम्हारा पौरुष, तब, झांकना अपने भीतर एक लौ जलती मिलेगी वंही; जंहा, जमा कर रखा है तुमने मुझे, बरसों बरस..... सूखी रेत पर झुलसते पैरों तले, जब बुझा दिए गए थे सम्मान के दीप्त दिए, जब सड़क पर भाग रही थी अकेली स्त्री,  हजारों दानवों के बीच, मैं मर गयी थी तुम्हारे भीतर; एक लाश अटकी है तुम्हारी पुतलियों पर उठाओ!!! क्या तुम्हारे ज़मीर से ज्यादा भारी है, सड़ी हुयी लाशें भारी हो जाती हैं, और सड़ा हुआ जमीर.... भीड़ का कोई जमीर नहीं होता ।। #Aparna Bajpai

अटल जी की अवधी बोली में लिखी कविता

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मनाली मत जइयो मनाली मत जइयो, गोरी  राजा के राज में जइयो तो जइयो,  उड़िके मत जइयो,  अधर में लटकीहौ,  वायुदूत के जहाज़ में. जइयो तो जइयो,  सन्देसा न पइयो,  टेलिफोन बिगड़े हैं,  मिर्धा महाराज में जइयो तो जइयो,  मशाल ले के जइयो,  बिजुरी भइ बैरिन  अंधेरिया रात में जइयो तो जइयो,  त्रिशूल बांध जइयो,  मिलेंगे ख़ालिस्तानी,  राजीव के राज में मनाली तो जइहो.  सुरग सुख पइहों.  दुख नीको लागे, मोहे  राजा के राज में।

बस एक ख़्वाब था छू ले कोई!

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बस एक ख़्वाब था छू ले कोई , सहला दे ज़रा इन ज़ख्मों को इक लम्हा अपना दे जाये और बाँट ले मेरे अफ़सानों को। कुछ नाज़ुक शब्द पिरोकर के एक हार मुझे पहना जाएँ, कुछ सच्ची -मुच्ची बातों से  वो मेरा दिल बहला जाएँ। कुछ सूरत ऐसी बन जाए वो बैठे मेरे पहलू में, मैं एक नदिया बन बह जाऊं  वो एक समुन्दर हो जाएं। कुछ रेत अभी भी बाक़ी है कुछ किरचें आँखों में चुभतीं, कुछ छाले दुखते हैं अब भी, कुछ दर्द अभी भी रिसता है। कुछ ख़्वाब अधूरे जाग रहे कुछ उम्मीदें हैं राह तकती, कुछ आस बची है आँखों में कुछ बाकी हैं अलफ़ाज़ अभी। #AparnaBajpai (Image credit google)

कारोबार

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जब तुम अट्टालिकाओं की खेती कर रहे थे,     तभी तुमने तबाह कर दिया था;  बूढ़े बरगद का साम्राज्य, पीपल की जमीन को रख दिया था गिरवीं, न जाने कितने पेड़ों को किया था धराशायी, अपनी रौ में ख़त्म कर रहे थे,  अपने ही बच्चों की सांसें.... लो अब काटो अस्थमा की फसलें, कैंसर के कारोबार से माल कमाओ, दिल और गुर्दों का करो आयात- निर्यात, तन का क्या है...... एक उजड़ेगा तो दूसरा मिलेगा मृत्यु शाश्वत सत्य है उससे क्या डर.... प्रकृति रहे न रहे, धरती बचे न बचे,  हमें क्या! बरगद, पीपल , नीम के दिन नहीं रहे, अब ईंटें उगाते हैं, लोहा खाते हैं और अट्टालिकाओं के भीतर जिन्दा दफ़न हो जाते हैं।। #Aparna Bajpai Image credit shutterstock    

स्वाद!

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उनकी टपकती खुशी में छल की बारिश ज़्यादा है, आँखों में रौशनी से ज्यादा है नमी, धानी चूनरों में बंधे पड़े हैं कई प्रेम, ऊब की काई पर तैरती है ज़िंदगी की फसल गुमनाम इश्क़ की रवायत में, जल रही हैं उंगलियां, जल गया है कुछ चूल्हे की आग में, आज खाने का स्वाद लज़ीज़ है। ©Aparna Bajpai (Image credit alamy stock photo)

एक सज़ायाफ्ता प्रेमी

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प्रेम करते हुए अचानक ही वो मूँद लेता है अपनी आँखें और सिसकता है बेआवाज़, हमारे प्रगाढ़ आलिंगन से दूर होता हुआ नज़रें चुराता है, बोलने की कोशिश में, साथ नहीं देते होंठ, बस लरज़ जाती है थोड़ी सी गर्दन, मेरे प्रेम में आकंठ डूबा हुआ मेरा प्रेमी, हार जाता है अपने आप से...कि स्त्री के साथ रहना उसके लिए फांसी है और स्त्री के बिना रहना मौत... पुरुषत्व से बाहर आकर खुल जाता है उसका दर्द, चरम तक पंहुचता हुआ उसका प्रेम, दम तोड़ देता है बीच राह, टूटी हुई चूड़ियों में अब भी लगे हैं ख़ून के धब्बे, उजली चादर पर पसरा है लाल रंग, प्रेम के संगीत में भरी हैं असंख्य चीखें, वो उसके पहले प्रेम की आख़िरी चीख थी, तब से गुमसुम है एक स्त्री उसके भीतर, एक जीती जागती औरत का मृत जिस्म, टंगा है उसकी अंतर्मन की दीवार पर, वो ढो रहा है बलात्कृत स्त्री का दर्द, और हर बार प्रेम में पड़ने के बाद, जब भी छूता है किसी स्त्री का तन, बीच राह भागना चाहता है अपने पुरुषत्व से, आदिम गंध के बीच छला जाता है अपनी संवेदना से, कि पुरुष पुरुष नहीं सज़ायाफ्ता है अब।। #AparnaBajpai (Ima

कविताओं की खेती

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आँगन भर भर संजोती हूँ कवितायेँ, उनके शब्दों में खेल लेती हूँ ताल-तलैया, कभी कभी चाय के कप में उड़ेल कवितायेँ चुस्कियां लेती हूँ उनके भावों की, कवितायेँ भी... पीछा ही नहीं छोड़ती, धमक पड़ती हैं कभी भी मानती ही नहीं बिना लिखवाये, कागज़ की नावों पर सैर कराती मेघ की मल्हार पर कथक करवाती हैं, तबले की थाप और बाँसुरी की धुन बनी, पोर-पोर सरगम सी घुल घुल जाती हैं, शब्दों के बगीचे में खड़ी मेरी कवितायेँ अँखियों में लहू बन उतर-उतर जाती हैं, कागज़ और कलम के बीच अनुभूतियां कविता के बदन में निचुड़- निचुड़ जाती हैं, बारिश के दिनों की रोचक अभिव्यक्तियाँ, नज़्म और कविता बन महक महक जाती हैं, सूखे से सावन और भीगे हुए भादों में कवितायेँ ही मन का मीत बन जाती हैं, उम्र की उल्टी गिनती शुरू होती है जबसे कवितायें तन का संगीत बन जाती हैं, चाहती हूँ..... बस यही शब्दों की खेती से; खेतों खलिहानों में बीज बन उग जाएंगी, आँगन में संजोयी हुई मेरी सारी कवितायेँ हर भूखे पेट का चैन बन जाएंगी, थके हारे नाविक के चरणों को छू कर के कवितायेँ,उल्लास की देह बन जाएंगी। #AparnaBajp

सूखे मेघ

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कबीर

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उम्र का नृत्य

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उम्र चेहरे पर दिखाती है करतब, उठ -उठ जाता है झुर्रियों का घूंघट, बेहिसाब सपनों की लाश अब तैरती  है आँखों की सतह पर, कुछ झूठी उम्मीदें अब भी बैठी हैं, आंखों के नीचे फूले हुए गुब्बारों पर, याद आते हैं बचपन के दोस्त...  जो पंहुच पाए किसी ऊंचे ओहदे पर  कि... ऊपर आने के लिए बढ़ाया न हाँथ कभी, कुछ दोस्त अब भी हाँथ थाम लेते हैं गाहे-बगाहे जिनके हांथों में किस्मत की लकीरें न थी, वक्त - जरूरत कुछ चांदी से चमकते बाल खड़े हो जाते हैं हौंसला बन जब चौंक जाता है करीब में सोया बच्चा नींद में ही, पेट पर फिराता है हाँथ नन्हकू  और हलक में उड़ेल लेता है  एक लोटा पानी; बटलोई में यूं ही घुमाती है चमचा पत्नी और... पूछती है खाली आँखों से, कुछ और लोगे क्या!!!! उम्र की कहानी यूं चलती रहती है वो भरते रहते हैं हुंकार कि.... नींद न आ जाए वंहा जंहा किस्मत खड़ी हो किसी मोड़ पर। ©Aparna Bajpai (Image credit google)

आँचल में सीप

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तुम्हारी सीप सी आंखें और ये अश्क के मोती, बाख़बर हैं इश्क़ की रवायत से... तलब थी एक अनछुए पल की जानमाज बिछी; ख़ुदा से वास्ता बना तुम्हारी पलकों ने करवट ली दुआ में हाँथ उठा  बीज ने कुछ माँग लिया मेघ बरसे,  पत्तियों ने अंगड़ाई ली,  धरती ने हरी साड़ी पहन,  रेत से हाँथ मिलाया बाँध लिए सीप मोतियों समेत आँचल की गिरह में। #AparnaBajpai

मौत का सौदा

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हाशिये पर खड़े लोग,  प्रतीक्षारत हैं अपनी बारी की, उनकी आवाज़ में दम है, सही मंतव्य के साथ मांगते हैं अपना हक़, कर्ज के नाम पर बंट रही मौत को  लगाते हैं गले, अपनी ही ज़मीन पर रौंद दिये जाते हैं; कर्ज लेकर खरीदे गए ट्रैक्टर के नीचे, अपने ही खेत में उगाया गया गन्ना,  खींच लेता है ज़िंदगी का रस,  फसल और परती जमीन दोनों ही बनी हैं गले की फांस.... कि किसान के लिए नयी नयी योजनाएं ला रही है सरकार  मज़दूर को पलायन किसान को मौत की रेवड़ी स्त्री के लिए कन्यादान  .... सब वस्तुएं ही तो हैं, ठिकाने लगानी ही होंगी, सजाना है नया दरबार विकास अपरंपार  हाशिये के लोगों को केंद्र में लाना है, विकास की गंगा में गरीबों को बहाना है, एक आदमी की मौत की कीमत  तुम क्या जानो.... बस एक हाँथ रस्सी , एक चुटकी ज़हर  और...सरकार के खोखले वादे .... #AparnaBajpai (Image credit google)

आदमी होने का मतलब

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मैं एक आदमी हूँ  मौत से भागता हुआ  भरमाता हुआ ख़ुद को  कि मौत कुछ नहीं बिगाड़ पायेगी मेरा.... मैं एक कसाई हूँ, मौत का रोज़गार करता हुआ  ज़िंदा हूँ अपनी संवेदनाओं समेत कटे हुए जानवरों की अस्थियों में। मैं एक रंगरेज़ हूँ रंगता हूँ मौत के सफ़ेद रंग को  लाल पीले उत्सवी रंगों में मेरी दुनिया की दीवारें हैं झक्क सफ़ेद.... कि मैं सिमटा हूँ मात्र कपड़ों तक.. कहता है आदमी  कि मैं सिर्फ आदमी हूँ जबकि आदमी होने से पहले  वह आदमी बिलकुल नहीं था। पार कर रहा था वह  जनन की संधि गर्भ की सीमा  पालन का सुख  संस्कारों की संकीर्णता  भावुकता की घाटी  उल्लास की माटी, सब कुछ पार कर लेने के बावजूद  आदमी तलाशता है सुरक्षा कवच  कि अतीत को भूल भविष्य के डर में मुब्तिला है आदमी । (Image credit google)

देख कर भी जो नहीं देखा !

एक कविता.... कुछ अदेखा सा जो यूं ही गुज़र जाता है व्यस्त लम्हों के गुजरने के साथ और हम देखकर भी नहीं देख पाते , न उसका सौंदर्य , न उसकी पीड़ा, न ख़ामोशी , और न ही संवेग  सब कुछ किसी मशीन से निकलते उत्पाद की तरह होता जाता है और हमारा संवेदनशून्य होता मष्तिष्क कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाता।

कहो कालिदास , सुनें मेरी आवाज़ में

विद्वता के बोझ तले दबे हर पुरुष को समर्पित यह कविता मेरी आवाज़ में सुनें... यह कविता आप इससे पूर्व वाली पोस्ट में पढ़ भी सकते हैं...

दहलीज़ पर कालिदास

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कहो कालिदास, आज दिन भर क्या किया, धूप में खड़े खड़े पीले तो नहीं पड़े, गंगा यमुना बहती रही स्वेद की और तुम.... उफ़ भी  नहीं करते , कहो कालिदास, कैसा लगा मालविका की नज़रों से विलग होकर, तुम लौट-लौट कर आते रहे उसी दहलीज़ पर मन में कौंधती रही दाड़िम दंतपंक्ति मुस्कुराहटें संभालते रहे प्रेम की पोटली में लौट नहीं पाते उसी द्वार खुद से वादा..... प्रेम से ज्यादा जरूरी है? कहो कालिदास, विद्वता की गरिमा ओढ़ थके तो नहीं, इससे तो अच्छा था कि बैठे रहते उसी डाल पर जिसे काट रहे थे, गिरते तो गिरते, मरते तो मरते, जो होना था हो जाता महानता का बोझ तो न ढोना पड़ता, अरे कालिदास! महानता की दहलीज़ के बाहर आओ, ज़रा मुस्कुराओ, कुछ बेवकूफियां करो कुछ नादानियाँ करो, बौद्धिकता का खोल उतारो हंसो खुल के जियो खुल के, अरे कालिदास! एक बार तो जी लो अपनी ज़िंदगी। (हर पुरुष के भीतर बैठे कालिदास को समर्पित) (Image credit Shutterstock)

एक चिड़िया का घर

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एक चिड़िया उड़ती है बादलों के उस पार.. उसकी चूं-चूं सुन, जागता है सूरज, उसके पंखों से छन कर,  आती है ठंढी हवा,  गुनगुनाती है जब चिड़िया, आसमान तारों से भर जाता है, धरती से उठने वाली;  साजिशों की हुंकार सुन; चिड़िया जब-तब कराहती है, उसकी आँखों से बहती है आग, धरती पर बहता है लावा, रोती हुई चिड़िया को देख उफनते हैं ज्वालामुखी, सूख जाती हैं नदियां, मुरझा जाते हैं जंगल, आजकल चिड़िया चुप है! उदास हैं उसके पंख,  चिड़िया कैद है रिवाज़ों के पिटारे में ज़रा गौर से देखो संसार की हर स्त्री की आँखें! वह चिड़िया वंही रहती है.... (Image credit google)

ये सरकारी कार्यालय है!

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अजी ये भी कोई वक़्त है, दिन के बारह ही तो बजे हैं, अभी-अभी तो कार्यालय सजे हैं, साहब घर से निकल गए है, कार्यालय नहीं आये तो कंहा गए हैं, ज़रा चाय-पानी लाओ, गले को तर करवाओ, सरकारी कार्यालय है, भीड़ लगना आम है, इतनी भी क्या जल्दी है आराम से काम करना ही हेल्थी  है, दौड़ भाग में काम करवाओगे, मुझे भी मेडिकल लीव में भेजवाओगे, आराम से बैठो, आज नहीं तो कल काम हो ही जायेगा, सूरज कभी न कभी निकल ही आयेगा, सरकारी व्यवस्था में ऐसा ही होता है, नौ की जगह काम एक बजे शुरू होता है, सवाल करना बेकार है, हमारा ही आदमी है, हमारी ही व्यवस्था है, जो कोई देखे सुने वो गूंगा, बहरा अँधा है, मुंह पर चुप रहने की सिलिप लगाओ, व्यवस्था को कोसने से बाज आओ, जंहा जाओगे यही हाल मिलेगा कर्मचारी ग़ायब, शिकायतों का अंबार मिलेगा। (Image credit google)

नया इतिहास

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मेरी जेबों में तुम्हारा इतिहास पड़ा है कितना बेतरतीब था; तुम्हारा भूत..... वक्त की नब्ज़ पर हाँथ रख, पकड़ न पाया समाज का मर्ज़, मुगालते में ही रहा; कि... वक्त मेरी मुट्ठी में है, कानों में तेल डाल,  सुनता रहा, अपनी ही गौरव-गाथा! तब तक  झुका लिया मैंने, घड़ी की सुइयों को अपनी ओर, अब रचा जा रहा है नया इतिहास...... प्रेम के दस्तावेजों में नफ़रत नहीं अमन के गीत हैं सरहदों पर खून के धब्बे नहीं गुलाब की फसलें हैं,   शेष बहुत कुछ बचा है   इतिहास के पन्नों में जुड़ने को... जैसे नदी की कथा, हवा की व्यथा, खतों का दर्द, जुबां का फ़र्ज़,   शर्म का नकाब, गरीबों का असबाब, और भी बहुत कुछ बहुत कुछ बहुत कुछ...... तुम कुछ कहते नहीं!!!! इस इतिहास में तुम्हारी भी कथा होगी जो चाहो लिखना बस झूठे दंभ का आख्यान मत लिखना. (Image credit Pixabay.com)

माँ बनना.... न बनना

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लेबर रूम के बेड पर तड़पती हुई स्त्री  जब देती है जन्म एक और जीव को  तब वह मरकर एक बार फिर जन्म लेती है अपने ही तन में, अपने ही मन में, उसके अंतस में अचानक बहती है एक कोमल नदी जिसे वह समझती है धीरे धीरे; लेकिन दुनिया उस नदी की धार से  हरिया जाती है, माँ बनना आसान नहीं होता और माँ न बनना.... उससे भी ज्यादा कठिन, सवालों और तिरछी नज़रों के जख़्म  लेबरपेन से ज्यादा कष्टकारी होते है, कि दुनिया हर उस बात के लिए सवाल करती है जो आप नहीं होते... औरत के लिए माँ बनना न बनना उसकी च्वाइस है न कि उसकी शारीरिक बाध्यता. यदि न दे वो संतान को जन्म  स्त्री का ममत्व मर तो नहीं जाता  न ही सूख जाती है उसकी कोमल भावनाओं की अन्तःसलिला औरत जन्म से ही माँ होती है सिर्फ तन से नहीं मन से भी.. (Image credit Pixabay)

मैंने देखा है.... कई बार देखा है

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मैंने देखा है, कई बार देखा है, उम्र को छला जाते हुए, बुझते हुए चराग में रौशनी बढ़ते हुए, बूढ़ी आँखों में बचपन को उगते हुए मैंने देखा है... कई बार देखा है, मैंने देखा है  बूँद को बादल बनते हुए, गाते हुए लोरी बच्चे को माँ को नींद की राह ले जाते हुए, मैंने देखा है, कई बार देखा है... एक फूल पर झूमते भंवरे को; उदास हो दूसरी शाख़ पर मंडराते हुए, सूखते हुए अश्क़ों को गले में नमी बन घुलते हुए, मैंने देखा है कई बार देखा है.... शब्द को जीवन हुए कंठ को राग बन बरसते हुए, उँगलियों को थपकी बन कविता की शैया पर सोते हुये, मैंने देखा है..... कई बार देखा है जब जब देखती हूँ कुछ अनकही बातें लगता है जैसे  कुछ भी नहीं देखा है... कुछ भी नहीं देखा है ... (Image credit to Pinterest)

घूँट--घूँट प्यास

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( नोट- कविता में बेवा के घर को सिर्फ एक प्रतीक के तौर पर) पढ़ें।

इंतज़ार एक किताब का!

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उसने मुझे बड़ी हसरत से उठाया था, सहलाया था मेरा अक्स, स्नेह से देखा था ऊपर से नीचे तक,  आगे से पीछे तक, होंठों के पास ले जाकर हौले से चूम लिया था मुझे  और.... बेसाख्ता नज़रें घुमाई थीं चारों ओर कि...... किसी ने देखा तो नहीं!  मैं ख़ुश थी उन नर्म हथेलियों के बीच  कितनी उम्मीद से घर आयी थी उसके  कि.... अब रोज  उन शबनमी आंखों का दीदार होगा,   उन नाज़ुक उँगलियों से छुआ जाएगा मेरा रोम-रोम पर...... मैं बंद हूँ इन मुर्दा अलमारियों के बीच  मेरी खुशबू मर गयी है, ख़त्म हो रहे हैं मेरे चेहरे के रंग.... लाने वाली व्यस्त है घर की जिम्मेदारियों में.... बस  एक तड़प बाक़ी है, उसकी आँखों में मुझे छूने की,  वो काम की कैद में है  और मैं अलमारी की .... वो मुझे चाहती है,  और मैं उसे,  इन्तजार है,  उसे भी,  मुझे भी, एक दूसरे के साथ का! (Image credit google)

हिंदी कविता - दुनिया का सच

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मेरी कविता 'दुनिया का सच' सुनें मेरी आवाज़ में जो की सामाजिक बाज़ार में स्त्री की व्यथा से आपको रूबरू करवाती है। आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए अमूल्य हैं  कृपया अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य दें ताकि इस नयी राह पर आपके सुझावों का हाँथ पकड़ कर आगे बढ़ सकूं।

दूर हूँ....कि पास हूँ

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मैं बार-बार मुस्कुरा उठता हूँ  तुम्हारे होंठो के बीच, बेवज़ह निकल जाता हूँ तुम्हारी आह में, जब भी उठाती हो कलम लिख जाता हूँ तुम्हारे हर हर्फ़ में, कहती हो दूर रहो मुझसे.... फ़िर क्यों आसमान में उकेरती हो मेरी तस्वीर? संभालती हो हमारे प्रेम की राख;  अपने ज्वेलरी बॉक्स में, दूर तो तुम भी नहीं हो ख़ुद से फ़िर मैं कैसे हो सकता हूँ? तुम्हारे तलवे के बीच वो जो काला तिल है न; मैं वंही हूँ, निकाल फेंको मुझे अपने वज़ूद से,  या यूँ ही पददलित करती रहो, उठाओगी जब भी कदम, तुम्हारे साथ -साथ चलूंगा, और तुम! धोते समय अपने पैर, मुस्कुराओगी कभी न कभी. #अपर्णा बाजपेई (Image credit to dretchstorm.com)