डरती हूँ मैं!


जब भी, 
फ़िर से, 
काम पर जाने की इच्छा, 
उठाती है सिर,
ज़मीदोज़ कर देती हूँ उसे,
आख़िर एक नन्ही सी बच्ची की माँ जो हूँ......
घर में, 
मंदिर में, 
अस्पताल में, 
स्कूल में, 
सड़क पर,
बस में,
ट्रेन में.... 
सब जगह हो सकता है बलात्कार!
आठ महीना, 
दो साल, 
तीन साल,
पांच साल,
सात साल, 
दस साल 
किसी भी उम्र में हो सकता है बलात्कार!
क्या करूँ, कंहा रखूँ उसे 
जंहा वो रहे महफूज़ हर बुरी नज़र से...
डरती हूँ कि..... 
नन्ही सी बच्ची, 
नहीं समझती 
गलत हरकतें,
समझ नहीं पाती
गंदे इशारे,
दौड़ जाती है 
एक चॉकलेट के लालच में
हर एक की गोद में,
हर इंसान को समझती है अपना,
नहीं जानती,
इंसान की शक्ल में,
दौड़ रहे हैं भेड़िए,
कब किसे कंहा दबोच लें
कोई पता नहीं.

(Image credit google)

टिप्पणियाँ

  1. अंतर्मन में हाहाकार मचाती हुई रचना... आखिर क्यों और कब तक पुरूष अपना पौरुष साबित करने के लिए मासुमों के साथ जघन्य अपराध करता रहेगा ।
    आखिर कब तक हम ये दंश झेलते रहेंगे

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  2. अत्यन्त सम्वेदनशील रचना... काश लोगों की विकृत और बीमार मानसिकता कभी स्वस्थ हो जाए...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार पूर्णिमा जी . ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है. आपकी प्रतिक्रिया और सुझाव मेरे लिये बहुमूल्य हैं.
      saadar

      हटाएं
  3. अंतर तक हिला गई आपकी संवेदना से भरी ये रचना सच का विकृत चेहरा घिनौना डरावना
    रचना की तारीफ मे निशब्द!!!
    डर बस डर

    जवाब देंहटाएं
  4. आदरणीया,
    आपकी रचना बेहद ही संवेदनशील है जो हमारे समाज के विकृत मानसिकता को और एक माँ की तड़प को व्यक्त करता है।

    जवाब देंहटाएं
  5. मार्मिक
    हृदय को विदीर्ण करती रचना

    जवाब देंहटाएं
  6. हर माँ का डर..... बदलते सामाजिक परिदृश्य में ऐसा डर हर माँ के मन में पैदा हो गया है।
    बहुत सुंदर,सहज और सटीक अभिव्यक्ति अपर्णा जी।

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  7. झकझोर दिया आपने
    बेहद उम्दा

    जवाब देंहटाएं
  8. बहुत संवेदनात्मक रचना ..दिल को झकझोर कर रख दिया ।

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  9. बेहद ही संवेदनशील मर्मस्पर्शी है

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