एक सज़ायाफ्ता प्रेमी
प्रेम करते हुए
अचानक ही वो मूँद लेता है अपनी आँखें
और सिसकता है बेआवाज़,
हमारे प्रगाढ़ आलिंगन से दूर होता हुआ
नज़रें चुराता है,
बोलने की कोशिश में,
साथ नहीं देते होंठ,
बस लरज़ जाती है थोड़ी सी गर्दन,
मेरे प्रेम में आकंठ डूबा हुआ मेरा प्रेमी,
हार जाता है अपने आप से...कि
स्त्री के साथ रहना उसके लिए फांसी है
और स्त्री के बिना रहना मौत...
पुरुषत्व से बाहर आकर खुल जाता है उसका दर्द,
चरम तक पंहुचता हुआ उसका प्रेम,
दम तोड़ देता है बीच राह,
टूटी हुई चूड़ियों में अब भी लगे हैं ख़ून के धब्बे,
उजली चादर पर पसरा है लाल रंग,
प्रेम के संगीत में भरी हैं असंख्य चीखें,
वो उसके पहले प्रेम की आख़िरी चीख थी,
तब से गुमसुम है एक स्त्री उसके भीतर,
एक जीती जागती औरत का मृत जिस्म,
टंगा है उसकी अंतर्मन की दीवार पर,
वो ढो रहा है बलात्कृत स्त्री का दर्द,
और हर बार प्रेम में पड़ने के बाद,
जब भी छूता है किसी स्त्री का तन,
बीच राह भागना चाहता है अपने पुरुषत्व से,
आदिम गंध के बीच छला जाता है अपनी संवेदना से,
कि पुरुष पुरुष नहीं सज़ायाफ्ता है अब।।
#AparnaBajpai
(Image credit Shutterstock.com)
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जवाब देंहटाएंप्रेम में दूसरों को दुख देने की संभावना अमान्य है।
जवाब देंहटाएंअछूते बिषय की मीमांसा अपने सार्थक संदेश को संबोधित करते हुए अहम सवाल खड़े करती है।
बधाई एवं शुभकामनाएं।
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जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "मित्र मंडली" में लिंक की गई है https://rakeshkirachanay.blogspot.com/2018/07/77.html पर आप सादर आमंत्रित हैं ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत आभार राकेश जी
हटाएंसादर
बहुत सुंदर रचना
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