माटी की देह (लघु कथा)
फुगिया कुछ महीनों से बिस्तर पर है .... , उसका मर्द दो को ला चुका है , रात काटी है उनके साथ और ठिकाने लगा आया है किसी बड़े शहर में.
जानती है सब कुछ फुगिया फिर भी चुप है.. पति नाम की तख्ती और जो टंगी है उसके सिर... भाग नहीं सकती अब.. कितने दिन और बचे हैं ज़िन्दगी के.. काम की नहीं रही अब।
फूल बेचती थी फुगिया कभी.. और फूलों के संग-संग गांव की कलियों को भी लगा देती थी ठौर- ठिकाने...
कोई भूखा न मरे गांव में.. और क्या बस इतना ही तो चाहती थी वो... बस नेकी कर और दरिया में डाल..
उसकी नेकी की खबर उस बार न जाने कैसे पुलिस को लग गई और बिना कोई देर हुए फुगिया जेल में थी... न किसी को खबर न पता! फुगिया गांव से गायब थी और खुद से भी.. मिर्ज़ा ने छुड़ाया था उसे और ले गया था कलकत्ता... दो तीन बार पहले भी मिली थी फुगिया उससे काम के सिलसिले में... बांग्लादेश, नेपाल से भी लाता था वो लड़कियों को और दिल्ली ले जाता था.. फुगिया भी मदद करती थी। दोनों ने शादी कर ली थी इस शर्त पर की कभी साथ में न सोएंगे.. आखिर मिर्ज़ा मुसलमान था और उसे कैसे मुंह लगा सकती है फुगिया... बड़े का मांस खाते हैं ये लोग बचपन से सुनती आई थी....
दोनों कमा रहे थे साथ-साथ.….लगा रहे थे ठौर ठिकाने लड़कियों को, बच्चों को और बूढ़ों को भी..
फिर वक्त का कुछ ऐसा धक्का लगा कि काम बंद हो गया...
मिर्ज़ा चला गया अपने देश और फुगिया बच गई.. कुछ दिन बचत से काम चलाया ...फिर कुछ न बचा तो देह काम आई...आखिर इस माटी की देह से क्या मोह...सांसे तो चलानी ही हैं... पांच बरस बीत गए यही सब करते हुए...
अब देह भी न बची...बिस्तर पर पड़ी है फुगिया ... उसका मर्द लौट आया है....काम धंधे में लगा है .... दो को ठौर- ठिकाने पंहुचा आया है किसी बड़े शहर में.
अब फुगिया की बारी... कहता है एक ही किडनी से काम चल सकता है तो दो रखने का क्या मतलब...
बात हो गई है किसी बड़े अस्पताल में..... इस माटी की देह से क्या मोह!!
जानती है सब कुछ फुगिया फिर भी चुप है.. पति नाम की तख्ती और जो टंगी है उसके सिर... भाग नहीं सकती अब.. कितने दिन और बचे हैं ज़िन्दगी के.. काम की नहीं रही अब।
फूल बेचती थी फुगिया कभी.. और फूलों के संग-संग गांव की कलियों को भी लगा देती थी ठौर- ठिकाने...
कोई भूखा न मरे गांव में.. और क्या बस इतना ही तो चाहती थी वो... बस नेकी कर और दरिया में डाल..
उसकी नेकी की खबर उस बार न जाने कैसे पुलिस को लग गई और बिना कोई देर हुए फुगिया जेल में थी... न किसी को खबर न पता! फुगिया गांव से गायब थी और खुद से भी.. मिर्ज़ा ने छुड़ाया था उसे और ले गया था कलकत्ता... दो तीन बार पहले भी मिली थी फुगिया उससे काम के सिलसिले में... बांग्लादेश, नेपाल से भी लाता था वो लड़कियों को और दिल्ली ले जाता था.. फुगिया भी मदद करती थी। दोनों ने शादी कर ली थी इस शर्त पर की कभी साथ में न सोएंगे.. आखिर मिर्ज़ा मुसलमान था और उसे कैसे मुंह लगा सकती है फुगिया... बड़े का मांस खाते हैं ये लोग बचपन से सुनती आई थी....
दोनों कमा रहे थे साथ-साथ.….लगा रहे थे ठौर ठिकाने लड़कियों को, बच्चों को और बूढ़ों को भी..
फिर वक्त का कुछ ऐसा धक्का लगा कि काम बंद हो गया...
मिर्ज़ा चला गया अपने देश और फुगिया बच गई.. कुछ दिन बचत से काम चलाया ...फिर कुछ न बचा तो देह काम आई...आखिर इस माटी की देह से क्या मोह...सांसे तो चलानी ही हैं... पांच बरस बीत गए यही सब करते हुए...
अब देह भी न बची...बिस्तर पर पड़ी है फुगिया ... उसका मर्द लौट आया है....काम धंधे में लगा है .... दो को ठौर- ठिकाने पंहुचा आया है किसी बड़े शहर में.
अब फुगिया की बारी... कहता है एक ही किडनी से काम चल सकता है तो दो रखने का क्या मतलब...
बात हो गई है किसी बड़े अस्पताल में..... इस माटी की देह से क्या मोह!!
जवाब देंहटाएंमानव-तस्करी एवं मानव-अंग तस्करी की पृष्ठभूमि में वंचित वर्ग द्वारा शरीर की निंदनीय उपयोगिता पर गंभीर सवाल खड़े करती लघुकथा।
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (14 -07-2019) को "ज़ालिमों से पुकार मत करना" (चर्चा अंक- 3396) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
....
अनीता सैनी
शुक्रिया अनीता जी, रचना को पटल पर रखने के लिए
हटाएंसादर
धन्यवाद जी
जवाब देंहटाएंइतना कटुसत्य और इतने आसान लफ्ज़ों में .. वाह मार्मिक रचना
जवाब देंहटाएंअलकनंदा जी, ब्लॉग पर आने और अपनी प्रतिक्रिया देने के लिए सादर आभार
हटाएंसशक्त रचना
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय!
हटाएंदिल दहलाता सत्य कैसे सहज शब्दों में सार लिख दिया।
जवाब देंहटाएंअतुल्य सृजन।