रासायनिक विध्वंश की आशंका (Fears of chemical destruction)
घनघोर अंधेरी रात में जब घुमड़ते हैं मेघ दिल थर- थर काँप उठता है। सात समंदर पार बैठे हमारे अपने लोगों के सिर पर कंही बरस न रहे हों गोले - बारूद, आतताइयों के बनाये मंसूबों से उजाड़ न हो रही हों मासूम बच्चों की जिंदगियां। जिस प्रकार बह रहा है गुजरात , झेल रहे है पूर्वोत्तर राज्य बाढ़ की विभीषिका , उस पराये से देश में; रासायनिक विध्वंश की बाढ़ न आ गयी हो, बह न गयी हो मानवता। जब युद्धोन्माद सिर चढ़ कर बोलता है, देश के नमक हराम शाशक भूल जाते हैं मानवीय व्यवहार, सामने वाले को कमतर समझने की भूल करके; अपने ही नागरिकों को देने लगते हैं मृत्युदंड। बरसते हुए मेघ शांत नहीं कर पाते उन्माद की ज्वाला। ऐसे में एक आम नागरिक कर ही क्या सकता है सिवाय थर- थर कांपने के; और बनाये रखने के उम्मीद, सही सलामत लौट आयेंगे वे लोग; जो गए तो थे रोजी- रोजगार के लिए , आज वंहा काल के गुलाम बन कर रह गए हैं।